Monday 19 March 2012

संविधान का क्या होगा?

पूँजी सारी दी दहेज में, जली मगर फिर भी दुल्हन,
पुलिस और कानूनों के, ये इंतजाम का क्या होगा?
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पूँजी जिसके पास उसी के, हाथों में व्यापार सभी,
शोषित, पीड़ित, मजदूरों का, औ” किसान का क्या होगा?
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गुण्डों और डकैतों की तो, संसद रक्षा करती है,
है कानून खिलौना उनका, संविधान का क्या होगा?
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घर घर में ये मेघनाथ औ”, कुम्भकरण रावण देखे,
जितने रावण राम हों उतने, एक राम का क्या होगा?
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बेइमानों के हाथों में तो, जनता ने दे दी सत्ता,
बंदी, पीड़ित और उपेक्षित, इस ईमान का क्या होगा?
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पैसों से डिग्री मिल जाती, औ” आरक्षण से सर्विस,
बहुत पढ़ाई उसने की है, इंतिहान का क्या होगा?
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Monday 30 January 2012

नेता, कुत्ता और वेश्या


नेता और कुत्ता
एक दिवस मैंने था सोचा, क्यों न मैं  नेता बन जाऊँ।
पर नेताओं के गुण क्या हैं, उन गुण को मैं कैसे पाऊँ।।
मैंने पूँछा  इक  कुत्ते से, नेता  की परिभाषा क्या है।
भौं भौं करके वह था बोला, नेता क्या तूँ कोई नया है।।
नेता  मेरे  जैसे  होते, मेरी  जैसी   करते   भौं  भौं।
वह आगे ही बढ़ते ही जाते, मेरे गुण अपनाते ज्यों ज्यों।।
हाई कमान के सम्मुख  सारे, नेता  अपनी पूँछ हिलाते।
चलते  फिरते सोते  जगते, हाई कमान  चालीसा  गाते।।
दिखे  जो  नेता  कोई  विरोधी , गाली  देते  हैं  गुर्राते।
भूल  के  अपनी  मर्यादा को, भौं भौं  कर उसको दौड़ाते।।
जब आता कुत्तों का मौसम, कुत्ते दिखते जगह जगह पर।
जब  आता चुनाव का मौसम, नेता दिखते  गाँव शहर हर।।
कुत्तों  का बस एक  धर्म  है, जिसकी खायें सदा  भजायें।
नेताओं  का  धर्म न कोई, देश  की  खायें  देश को खायें।।
एक  ओर  गुण मेल न खाता, हम मालिक अपने न बदलें।
सत्ता  के  खाति  तो नेता, सब मतलब परस्त ही निकलें।।
हम  कुत्ते  हैं सभी  जानते, नहीं  पता नेता की जात का।
सदा  बदलते रहते  जो  दल, धोबी कुत्ता घर न घाट का।।
टूट   गया  था  मेरा  सपना, बीबी  ने  आवाज   लगाई।
कभी  मैं  नेता  नहीं  बनूँगा, कुत्ते  की  सौगंध ये खाई।।
        नेता और वेश्या
नेता और वेश्या में,
कोई खास फर्क नहीं है।
नेता को वेश्या मान लूँ,
इसका अर्थ यही है।।
जिस तरह से वेश्यायें,
बनावटी श्रंगार करके
अपने ग्राहको को
बेवकूफ बनाती हैं
उसी तरह से नेता भी
झूठे लुभावने आश्वासनों से
जनता को लुभा करके
बेवकूफ बनाते हैं
और जीतने के बाद
सभी वादे भूल जाते हैं
यदि आप मेरी बात से
असहमत हों
तो कृपया मेरी शंका का
समाधान करें
पक्ष में या प्रतिपक्ष में
अपनी प्रतिक्रिया देकर
अपना मत जरूर दान करें

Sunday 8 January 2012

लुफ्त पीने का उठाया जाय

एक कवि अपनी प्रेयसी के विभिन्न अंगों एवं हावभावों
का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन करता है,जिसके प्रति उत्तर
में व्यंगरूप में तीस वर्ष पर्व लिखी गईं पंक्तियाँ आप
सबके मनोरंजनार्थ प्रस्तुत हैं। आप सबके आशीष कथनों
की आकांक्षा:-
लुफ्त पीने का  उठाया  जाय
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झील सी गहरी ये  आँखें हैं,
क्यों न ये झककर नहाया जाय।
संगमरमर  सा  बदन  तेरा,
ताज फिर दूजा  बनाया  जाय।
दिल है दरिया की तरह तेरा,
नाव को इसमें  चलाया  जाय।
बात करने से  झरें  मोती,
खर्च इनसे ही  उठाया   जाय।
चाँद सा लगता तिरा चेहरा,
चाँद को क्यों न चिढ़ाया जाय।
धड़कनें तेरी हैं सरगम सी,
गीत क्यों न गुन गुनाया जाय।
तीर सी लगती नजर तिरछी,
क्यों न दुश्मन पास लाया जाय।
ओंठ फाँकें  संतरे  सी  दो,
जूस फिर इनसे निकाला जाय।
आँख दर्पन सी कवि कहते,
देखकर खुद को सजाया जाय।
तन से यौवन की छलकती मय,
लुफ्त पीने का  उठाया  जाय।
आँख में तेरी भरी मदिरा,
इनको मयखाना बनाया  जाय।
झूठ कहने में हो माहिर तुम,
क्यों वकीलों पास जाया  जाय।
दिल बड़ा तेरा बहुत ही है,
क्यों न अपना घर बनाया जाय।