Saturday 10 December 2011

साकी हाला मधुशाला

1-खूनी बर्बर बन जाता है, पीकर मनुज धर्म हाला।
कभी नहीं खाली होता है, पाखंड़ों का यह प्याला।।
पिला रहे अनपढ़ मूर्खों को, धर्मगुरू बनकर साकी।
मिलती है बिन मोल यहाँ पर मंदिर-मस्जिद मधुशाला।।
2-लहू बहाते बेकसूर का, पीकर मनुज धर्म हाला।
जाने कब कैसे टूटेगा, पाखंड़ों का यह प्याला।।
फैलाते है साम्प्रदायिकता, धर्मगुरू बनकर साकी।
बनती बिकती औ पिवती है, मंदिर-मस्जिद मधुशाला।।
3-मुझे नास्तिक काफिर कह लो, किन्तु न पिऊँ धर्म हाला।
जब तक प्राण शेषर लहू तोड़ू, पाखंडों का यह प्याला।।
मुझे नहीं बहका पाये तुम, धर्मगुरू बनकर साकी।
वह पथ छोड़ा मैंने जिस पथ, मंदिर-मस्जिद मधुशाला।।

2 comments:

  1. Nihsandeh aapki kavita bahut achhi hai, lekin dharm ke bare mein ya to meri samajh kam hai ya aapki. mera manna hai ki dharm ke vyapak arth mein pakhand ka koi jagh nahi. Tv wale babaon ka koi sthan nahi hai. Asha hai aap meri bat ka bura nahi maneige.

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  2. गोपाल जी, हृदय से करे अभिवादन स्वीकार।
    मेरी पोस्ट पर आकर प्रथम प्रतिक्रया देने के लिये आपका आभार।।
    मान्यवर, मेरी समझ से सच्चा धर्म केवल एक ही धर्म है और वह है
    मानवता, तथा जिन्हें हम धर्म समझते है वह धर्म नहीं हैं, मात्र
    सम्प्रदाय है। मानवता ही मात्र एक धर्म है और ईश्वर भी एक है, वह
    है प्रकृति।

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